जीवन को दिशा देने वाले ईश्वरीय रूप का नाम है गुरु।।
(गुरु पूर्णिमा पर विशेष)
–सुरेन्द्र शर्मा
भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोच्च रहा है। गुरु अपने ज्ञान से शिष्यों के उज्ज्वल भविष्य का सृजन करने के साथ-साथ राष्ट्र निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
“अखंड मंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरं।
तत्पदं दर्शितं येनं, तस्मै श्री गुरुवे नम:॥”
इस अखंड मंडलाकार सृष्टि में बिन्दु से लेकर अनंत तक को चलाने वाली अपरिमित शक्ति का जो परम तत्व है तथा वहां तक का जिसका सहज संबंध है अर्थात् वह जो मनुष्य से लेकर समाज, प्रकृति और परमेश्वर शक्ति के बीच में हमारा माध्यम है एवं हम इस संबंध को जिनके चरणों में बैठकर अथवा जिनके सानिध्य और प्रेरणा से, जीवन जीने के इस गूढ़ रहस्य को समझने की अनुभूति पाने का प्रयास करते हैं, वह श्रेष्ठ सत्ता गुरु ही है जो व्यक्ति स्वरूप से ऊपर ज्ञान स्वरूप है ।
भारत वर्ष में आषाढ़ माह की पूर्णिमा जो कि महर्षि वेद व्यास का जन्मदिन भी है को सनातन धर्मावलंबी आषाढ़ी पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा या गुरु पूर्णिमा के रूप में भी मनाते हैं।।
गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
हिंदु परंपरा में गुरू को ईश्वर से भी आगे का स्थान प्राप्त है तभी तो कहा गया है कि
"हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर "
गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी होता है. वेद व्यास जी प्रकांड विद्वान थे उन्होंने वेदों की भी रचना की थी इस कारण उन्हें वेद व्यास के नाम से पुकारा जाने लगा।
शास्त्रों में गुरू को अंधकार को दूर करके ज्ञान का प्रकाश देने वाला कहा गया है. गुरु हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले होते हैं. गुरु की भक्ति में कई श्लोक रचे गए हैं जो गुरू की सार्थकता को व्यक्त करने में सहायक होते हैं. गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार संभव हो पाता है और गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं हो पाता।
भारत में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है. प्राचीन काल से चली आ रही यह परंपरा हमारे भीतर गुरू के महत्व को परिलक्षित करती है. पहले विद्यार्थी आश्रम में निवास करके गुरू से शिक्षा ग्रहण करते थे तथा गुरू के समक्ष अपना समस्त बलिदान करने की भावना भी रखते थे, तभी तो एकलव्य जैसे शिष्य का उदाहरण गुरू के प्रति आदर भाव एवं अगाध श्रद्धा का प्रतीक बना जिसने गुरू को अपना अंगुठा देने में क्षण भर की भी देर नहीं की।
गुरु पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह उच्चवल और प्रकाशमान होते हैं उनके तेज के समक्ष तो ईश्वर भी नतमस्तक हुए बिना नहीं रह पाते. गुरू पूर्णिमा का स्वरुप बनकर आषाढ़ रुपी शिष्य के अंधकार को दूर करने का प्रयास करता है. शिष्य अंधेरे रुपी बादलों से घिरा होता है जिसमें पूर्णिमा रूपी गुरू प्रकाश का विस्तार करता है. जिस प्रकार आषाढ़ का मौसम बादलों से घिरा होता है उसमें गुरु अपने ज्ञान रुपी पुंज की चमक से सार्थकता से पूर्ण ज्ञान का का आगमन होता है।
गुरू आत्मा एवं परमात्मा के मध्य का संबंध होता है. गुरू से जुड़कर ही जीव अपनी जिज्ञासाओं को समाप्त करने में सक्षम होता है तथा उसका साक्षात्कार प्रभु से होता है. हम तो साध्य हैं किंतु गुरू वह शक्ति है जो हमारे भितर भक्ति के भाव को आलौकिक करके उसमे शक्ति के संचार का अर्थ अनुभव कराती है और ईश्वर से हमारा मिलन संभव हो पाता है. परमात्मा को देख पाना गुरू के द्वारा संभव हो पाता है. इसीलिए तो कहा है ,
गुरु गोविंददोऊ खड़े ,काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय।।
गुरु को ब्रह्मा कहा गया है. गुरु अपने शिष्य को नया जन्म देता है. गुरु ही साक्षात महादेव है, क्योकि वह अपने शिष्यों के सभी दोषों को माफ करता है. गुरु का महत्व सभी दृष्टि से सार्थक है. आध्यात्मिक शांति, धार्मिक ज्ञान और सांसारिक निर्वाह सभी के लिए गुरू का दिशा निर्देश बहुत महत्वपूर्ण होता है. गुरु केवल एक शिक्षक ही नहीं है, अपितु वह व्यक्ति को जीवन के हर संकट से बाहर निकलने का मार्ग बताने वाला मार्गदर्शक भी है।
गुरु व्यक्ति को अंधकार से प्रकाश में ले जाने का कार्य करता है, सरल शब्दों में गुरु को ज्ञान का पुंज कहा जा सकता है. आज भी इस तथ्य का महत्व कम नहीं है. विद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं में विद्यार्थियों द्वारा आज भी इस दिन गुरू को सम्मानित किया जाता है. मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेलों का आयोजन किया जाता है।
♦ "व्यास पूर्णिमा–गुरु पूर्णिमा"
महर्षि वेदव्यास जी अमर हैं। महान विभूति वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग 3000 ई. पूर्व में हुआ था। महर्षि व्यास का पूरा नाम कृष्णद्वैपायन है। उन्होंने वेदों का विभाग किया, इसलिए उनको व्यास या वेदव्यास कहा जाता है। उनके पिता महर्षि पराशर तथा माता सत्यवती है।
भारत भर में गुरुपूर्णिमा के दिन गुरुदेव की पूजा के साथ महर्षि व्यास की पूजा भी की जाती है। महर्षि वेदव्यास भगवान विष्णु के कालावतार माने गए हैं। द्वापर युग के अंतिम भाग में व्यासजी प्रकट हुए थे। उन्होंने अपनी सर्वज्ञ दृष्टि से समझ लिया कि कलियुग में मनुष्यों की शारीरिक शक्ति और बुद्धि शक्ति बहुत घट जाएगी। इसलिए कलियुग के मनुष्यों को सभी वेदों का अध्ययन करना और उनको समझ लेना संभव नहीं रहेगा।
व्यासजी ने यह जानकर वेदों के चार विभाग कर दिए। जो लोग वेदों को पढ़, समझ नहीं सकते, उनके लिए महाभारत की रचना की। महाभारत में वेदों का सभी ज्ञान आ गया है। धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, उपासना और ज्ञान-विज्ञान की सभी बातें महाभारत में बड़े सरल ढंग से समझाई गई हैं।
इसके अतिरिक्त पुराणों की अधिकांश कथाओं द्वारा हमारे देश, समाज तथा धर्म का पूरा इतिहास महाभारत में आया है। महाभारत की कथाएं बड़ी रोचक और उपदेशप्रद हैं। सब प्रकार की रुचि रखने वाले लोग भगवान की उपासना में लगें और इस प्रकार सभी मनुष्यों का कल्याण हो। इसी भाव से व्यासजी ने अठारह पुराणों की रचना की।
वेदांत दर्शन के रचना करने वाले महर्षि वेदव्यास ने वेदांत दर्शन को छोटे-छोटे सूत्रों में लिखा गया है, लेकिन गंभीर सूत्रों के कारण ही उनका अर्थ समझने के लिए बड़े-बड़े ग्रंथ लिखे हैं।
महर्षि व्यास जी ने मानव जीवन को गुणों पर निर्धारित करते हुए उन महान आदर्शों को व्यवस्थित रूप में समाज के सामने रखा। विचार तथा आचार का समन्वय करते हुए, भारतवर्ष के साथ उन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शन किया। इसलिए भगवान वेदव्यास जगत् गुरु हैं। इसीलिए कहा है- "व्यासो नारायणम् स्वयं"- इस दृष्टि से गुरुपूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा गया है।
"अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन् चराचरं, तत्पदं दर्शितंयेनं तस्मै श्री गुरुवे नम:" यह सृष्टि अखंड मंडलाकार है। बिन्दु से लेकर सारी सृष्टि को चलाने वाली अनंत शक्ति का, जो परमेश्वर तत्व है, वहां तक सहज सम्बंध है। यानी वह जो मनुष्य से लेकर समाज, प्रकृति और परमेश्वर शक्ति के बीच में जो सम्बंध है। इस सम्बंध को जिनके चरणों में बैठकर समझने की अनुभूति पाने का प्रयास करते हैं, वही गुरु है। संपूर्ण सृष्टि चैतन्ययुक्त है।
♦भगवान दत्तात्रेय को आदिगुरु माना जाता है, क्योंकि उन्होंने यह शिक्षा दी कि ज्ञान किसी भी स्रोत से प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने अपने जीवन में 24 गुरु बनाए, जिनमें मनुष्य ही नहीं, बल्कि प्रकृति और विभिन्न जीव-जंतु भी शामिल थे। इन सभी से उन्होंने कुछ न कुछ महत्वपूर्ण सीखा। यह दर्शाता है कि सीखने की कोई सीमा नहीं होती और हर चीज में हमें गुरु तत्व दिख सकता है, बशर्ते हमारे पास विवेक और जिज्ञासा हो।
आइए जानते हैं भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरु और उनसे मिली शिक्षाएँ:
दत्तात्रेय के 24 गुरु और उनसे प्राप्त शिक्षाएँ
* पृथ्वी: पृथ्वी से दत्तात्रेय ने सहनशीलता, क्षमा और परोपकार की शिक्षा ली। पृथ्वी सभी जीवों का भार सहन करती है और बिना किसी भेदभाव के उन्हें आश्रय और पोषण देती है। इससे उन्होंने सीखा कि व्यक्ति को संसार के सुख-दुख को सहन करते हुए, अपनी प्रकृति में दृढ़ रहना चाहिए और दूसरों का भला करना चाहिए।
* वायु: वायु हर जगह मौजूद होती है, लेकिन किसी से चिपकती नहीं। इससे उन्होंने निर्लिप्तता और अनासक्ति सीखी। जिस प्रकार वायु अच्छी-बुरी गंध से अप्रभावित रहती है, उसी प्रकार ज्ञानी को भी संसार के भोगों और दोषों से अप्रभावित रहना चाहिए।
* आकाश: आकाश सर्वव्यापी है और किसी भी चीज से दूषित नहीं होता। इससे दत्तात्रेय ने असंगता और निराकारता का ज्ञान प्राप्त किया। आत्मा भी आकाश की तरह सर्वव्यापी, असंग और शुद्ध है।
* जल: जल स्वाभाविक रूप से पवित्र और शुद्ध होता है, और दूसरों को भी पवित्र करता है। इससे उन्होंने सीखा कि व्यक्ति को स्वयं शुद्ध होकर दूसरों को भी पवित्रता की प्रेरणा देनी चाहिए।
* अग्नि: अग्नि जिस भी वस्तु को ग्रहण करती है, उसे स्वयं में समाहित कर लेती है और पवित्र कर देती है। इससे उन्होंने प्रकाश, तेज और समदर्शिता की शिक्षा ली। जिस प्रकार अग्नि चाहे किसी भी वस्तु को जलाए, उसका मूल स्वरूप नहीं बदलता, वैसे ही ज्ञानी को भी सभी अवस्थाओं में एक समान रहना चाहिए।
* चंद्रमा: चंद्रमा अपनी कलाओं को घटाता-बढ़ाता है, लेकिन उसका मूल स्वरूप कभी नहीं बदलता। इससे दत्तात्रेय ने सीखा कि शरीर का जन्म, विकास, क्षय और मृत्यु तो होती है, लेकिन आत्मा अजर-अमर है।
* सूर्य: सूर्य एक होते हुए भी विभिन्न पात्रों में अलग-अलग दिखाई देता है, और अपने प्रकाश से सभी को प्रकाशित करता है। इससे उन्होंने आत्मा की एकता और प्रकाश का ज्ञान प्राप्त किया।
* कबूतर: एक कबूतर का जोड़ा अपने बच्चों के अत्यधिक मोह में इतना अंधा हो जाता है कि वह शिकारी के जाल में फंस जाता है। इससे दत्तात्रेय ने अत्यधिक मोह और आसक्ति से होने वाले दुखों को सीखा।
* अजगर: अजगर बिना किसी प्रयास के जो कुछ भी मिल जाए, उसी में संतोष करता है और बिना चले उसी स्थान पर रहता है। इससे उन्होंने संतोष, धैर्य और अपरिग्रह की शिक्षा ली।
* समुद्र: समुद्र को नदियाँ हमेशा भरती रहती हैं, लेकिन वह कभी अपनी सीमा नहीं लांघता। इससे दत्तात्रेय ने शांत मन, स्थिरता और असीम गहराई का पाठ पढ़ा। ज्ञानी का मन भी समुद्र की तरह शांत और गहरा होना चाहिए।
* पतंगा: पतंगा आग की लौ के प्रति इतना आकर्षित होता है कि स्वयं को जला लेता है। इससे दत्तात्रेय ने भौतिक इच्छाओं और इंद्रियों के वश में होने से होने वाले विनाश को समझा।
* मधुमक्खी: मधुमक्खी विभिन्न फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस इकट्ठा करती है, और भिक्षुक भी अलग-अलग घरों से थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रहण करता है। इससे उन्होंने थोड़ा-थोड़ा संग्रह करने और आवश्यकतानुसार ग्रहण करने की शिक्षा ली। (यह भी सीखा कि अधिक संचय विपत्ति का कारण बन सकता है, जैसे मधुमक्खी का शहद छीन लिया जाता है)।
* हाथी: हाथी मादा हाथी के मोह में फंसकर बंदी बना लिया जाता है। इससे दत्तात्रेय ने इंद्रिय-भोग, विशेषकर कामवासना से होने वाले पतन को सीखा।
* हिरण: हिरण मधुर संगीत पर मोहित होकर शिकारी का शिकार बन जाता है। इससे उन्होंने शब्द (श्रवण) इंद्रिय के प्रति अधिक आसक्ति से होने वाले खतरे को समझा।
* मछली: मछली कांटे में फँस जाती है, क्योंकि वह स्वाद के लालच को नहीं छोड़ पाती। इससे उन्होंने जिह्वा (स्वाद) इंद्रिय के वश में होने से होने वाले बंधन को सीखा।
* पिंगला वेश्या: एक वेश्या (पिंगला) रात भर एक धनी ग्राहक का इंतजार करती रही, लेकिन कोई नहीं आया। अंत में, उसने सभी आशाएँ त्याग दीं और ईश्वर में मन लगाया, जिससे उसे परम शांति मिली। इससे दत्तात्रेय ने निराशा से वैराग्य और सच्ची शांति की शिक्षा ली।
* कुरर पक्षी: कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लेकर उड़ रहा था, जिसे देखकर दूसरे पक्षी उसका पीछा कर रहे थे। जब उसने मांस का टुकड़ा छोड़ दिया, तो उसे शांति मिली। इससे उन्होंने अपरिग्रह (संग्रह न करना) और त्याग से मिलने वाली शांति का महत्व सीखा।
* बालक (शिशु): एक बालक हमेशा आनंदमय, चिंतामुक्त और निरपेक्ष होता है। इससे दत्तात्रेय ने सीखा कि व्यक्ति को संसार की चिंताओं से मुक्त होकर सहज आनंद में रहना चाहिए।
* कुमारी कन्या: एक अकेली कुमारी कन्या धान कूट रही थी। जब उसकी चूड़ियाँ बजने लगीं तो उसने एक-एक करके सारी चूड़ियाँ उतार दीं और केवल एक ही पहनी रखी, जिससे शोर न हो। इससे दत्तात्रेय ने सीखा कि एकान्त में रहकर ध्यान करना चाहिए और अत्यधिक संगति से बचना चाहिए, क्योंकि अधिक लोग होने पर अनावश्यक विवाद या शोर हो सकता है।
* बाण बनाने वाला (तीरंदाज): एक तीरंदाज बाण बनाने में इतना तल्लीन था कि उसे पास से गुजरती हुई एक बारात का भी आभास नहीं हुआ। इससे दत्तात्रेय ने एकाग्रता और लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करने की शिक्षा ली।
* सर्प (साँप): साँप किसी एक घर में नहीं रहता, बल्कि बिना घर बनाए बिलों में रहता है और अपने लिए कुछ भी इकट्ठा नहीं करता। इससे उन्होंने अनासक्ति, अपरिग्रह और बिना किसी स्थायी निवास के विचरने की शिक्षा ली।
* मकड़ी: मकड़ी अपने भीतर से ही जाल बुनती है और फिर उसी में स्वयं को बांध लेती है, या उसे तोड़कर बाहर निकल जाती है। इससे दत्तात्रेय ने ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना और संहार का रहस्य और योगियों द्वारा माया से मुक्ति का मार्ग समझा।
* भृंगी (भौंरा): भृंगी एक छोटे कीड़े (इल्ली) को अपने बिल में लाकर उसे बार-बार डंक मारता है, जिससे वह कीड़ा भी भृंगी जैसा बन जाता है। इससे उन्होंने ध्याता (ध्यान करने वाला) और ध्येय (जिसका ध्यान किया जा रहा है) के एक हो जाने के सिद्धांत को समझा (जैसा सोचोगे, वैसे बन जाओगे)।
* शरीर: स्वयं अपने शरीर से दत्तात्रेय ने सीखा कि यह नाशवान है और इसे अत्यधिक महत्व नहीं देना चाहिए। यह केवल आत्मा का एक अस्थायी वाहन है और यह दुख का मूल भी हो सकता है। इससे उन्होंने वैराग्य और आत्मज्ञान की ओर प्रवृत्त होने की प्रेरणा ली।
दत्तात्रेय का यह अद्वितीय दृष्टिकोण हमें सिखाता है कि ज्ञान का कोई निश्चित स्रोत नहीं है। एक सच्चा जिज्ञासु व्यक्ति हर छोटी-बड़ी घटना, हर प्राणी और प्रकृति के हर कण से जीवन के गूढ़ रहस्यों को सीख सकता है। यह उनकी अवधूत स्थिति को दर्शाता है, जिसमें वह सभी बंधनों से मुक्त होकर, हर अनुभव से सीखते हुए परम ज्ञान को प्राप्त करते हैं।
अपने समाज में हजारों सालों से, व्यास भगवान से लेकर आज तक, श्रेष्ठ गुरु परम्परा चलती आयी है। व्यक्तिगत रीति से करोड़ों लोग अपने-अपने गुरु को चुनते हैं, श्रद्धा से, भक्ति से वंदना करते हैं, अनेक अच्छे संस्कारों को पाते हैं। इसी कारण अनेक आक्रमणों के बाद भी अपना समाज, देश, राष्ट्र आज भी जीवित है।
♦गुरु के रहिये दास
.एक बार की बात है.. नारद जी विष्णु भगवान् जी से मिलने गए !
.भगवान् ने उनका बहुत सम्मान किया ! जब नारद जी वापिस गए तो विष्णुजी ने कहा हे लक्ष्मी जिस स्थान पर नारद जी बैठे थे ! उस स्थान को गाय के गोबर से लीप दो !
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जब विष्णुजी यह बात कह रहे थे तब नारदजी बाहर ही खड़े थे !
.उन्होंने सब सुन लिया और वापिस आ गए और विष्णु भगवान जी से पुछा.. हे भगवान जब मै आया तो आपने मेरा खूब सम्मान किया...
.पर जब मै जा रहा था तो आपने लक्ष्मी जी से यह क्यों कहा कि जिस स्थान पर नारद बैठा था उस स्थान को गोबर से लीप दो !
.भगवान ने कहा हे नारद मैंने आपका सम्मान इसलिए किया क्योंकि आप देव ऋषि है...
.और मैंने देवी लक्ष्मी से ऐसा इसलिए कहा क्योंकि आपका कोई गुरु नहीं है ! आप निगुरे है !
.जिस स्थान पर कोई निगुरा बैठ जाता है वो स्थान गन्दा हो जाता है !
.यह सुनकर नारद जी ने कहा हे भगवान आपकी बात सत्य है पर मै गुरु किसे बनाऊ !
.नारायण! बोले हे नारद धरती पर चले जाओ जो व्यक्ति सबसे पहले मिले उसे अपना गुरु मानलो !
.नारद जी ने प्रणाम किया और चले गए ! जब नारद जी धरती पर आये तो उन्हें सबसे पहले एक मछली पकड़ने वाला एक मछुवारा मिला !
.नारद जी वापिस नारायण के पास चले गए और कहा महाराज वो मछुवारा तो कुछ भी नहीं जानता मै उसे गुरु कैसे मान सकता हूँ ?
.यह सुनकर भगवान ने कहा नारद जी अपना प्रण पूरा करो !
.नारद जी वापिस आये और उस मछुवारे से कहा मेरे गुरु बन जाओ ! पहले तो मछुवारा नहीं माना बाद में बहुत मनाने से मान गया !
.मछुवारे को राजी करने के बाद नारद जी वापिस भगवान के पास गए और कहा हे भगवान! मेरे गुरूजी को तो कुछ भी नहीं आता वे मुझे क्या सिखायेगे !
.यह सुनकर विष्णु जी को क्रोध आ गया और उन्होंने कहा हे नारद गुरु निंदा करते हो जाओ मै आपको श्राप देता हूँ कि आपको 84 लाख योनियों में घूमना पड़ेगा !
.यह सुनकर नारद जी ने दोनों हाथ जोड़कर कहा हे भगवान ! इस श्राप से बचने का उपाय भी बता दीजिये !
.भगवान नारायण ने कहा इसका उपाय जाकर अपने गुरुदेव से पूछो !
.नारद जी ने सारी बात जाकर गुरुदेव को बताई !
.गुरूजी ने कहा ऐसा करना भगवान से कहना 84 लाख योनियों की तस्वीरे धरती पर बना दे फिर उस पर लेट कर गोल घूम लेना और...
.विष्णु जी से कहना 84 लाख योनियों में घूम आया मुझे माफ़ करदो आगे से गुरु निंदा नहीं करूँगा !
.नारद जी ने विष्णु जी के पास जाकर ऐसा ही किया उनसे कहा 84 लाख योनिया धरती पर बना दो और फिर उन पर लेट कर घूम लिए...
.और कहा नारायण मुझे माफ़ कर दीजिये आगे से कभी गुरु निंदा नहीं करूँगा !
.यह सुनकर विष्णु जी ने कहा देखा जिस गुरु की निंदा कर रहे थे उसी ने मेरे श्राप से बचा लिया ! नारदजी गुरु की महिमा अपरम्पार है !
.गुरु गूंगे गुरु बाबरे
गुरु के रहिये दास,
गुरु जो भेजे नरक को,
स्वर्ग कि रखिये आस !
.गुरु चाहे गूंगा हो चाहे गुरु बाबरा हो (पागल हो) गुरु के हमेशा दास रहना चाहिए ! गुरु यदि नरक को भेजे तब भी शिष्य को यह इच्छा रखनी चाहिए कि मुझे स्वर्ग प्राप्त होगा ,अर्थात इसमें मेरा कल्याण ही होगा !
.यदि शिष्य को गुरु पर पूर्ण विश्वास हो तो उसका बुरा "स्वयं गुरु" भी नहीं कर सकते !
.गुरु वचन पर तो विश्वास रखने वाले का उद्धार निश्चित है।
♦राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में गुरु पूजन
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तत्व पूजा करता है, व्यक्ति पूजा नहीं। व्यक्ति शाश्वत नहीं, समाज शाश्वत है। अपने समाज में अनेक विभूतियां हुई हैं, आज भी अनेक विद्यमान हैं। उन सारी महान विभूतियों के चरणों में शत्-शत् प्रणाम, परन्तु अपने राष्ट्रीय समाज को, संपूर्ण समाज को, संपूर्ण हिन्दू समाज को राष्ट्रीयता के आधार पर, मातृभूमि के आधार पर संगठित करने का कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है। इस नाते किसी व्यक्ति को गुरुस्थान पर न रखते हुए भगवाध्वज को ही हमने गुरु माना है।
प.पू. डॉ. हेडगेवार जी ने फिर से संपूर्ण समाज में, प्रत्येक व्यक्ति में समर्पण भाव जगाने के लिए, गुरुपूजा की, भगवाध्वज की पूजा का परंपरा प्रारंभ की।
व्यक्ति के पास प्रयासपूर्वक लगाई गई शारीरिक शक्ति, बुद्धिशक्ति, धनशक्ति होती है, पर उसका मालिक व्यक्ति नहीं, समाज रूपी परमेश्वर है। अपने लिए जितना आवश्यक है उतना ही लेना। अपने परिवार के लिए उपयोग करते हुए शेष पूरी शक्ति- धन, समय, ज्ञान-समाज के लिए समर्पित करना ही सच्ची पूजा है।
मुझे जो भी मिलता है, वह समाज से मिलता है। सब कुछ समाज का है, परमेश्वर का है, जैसे- सूर्य को अर्घ्य देते समय, नदी से पानी लेकर फिर से नदी में डलते हैं। मैं, मेरा के अहंकार भाव के लिए कोई स्थान नहीं।
शिवोभूत्वा शिवंयजेत्- शिव की पूजा करना यानी स्वयं शिव बनना, यानी शिव को गुणों को आत्मसात् करना, जीवन में उतारना है।
भगवाध्वज की पूजा यानी गुरुपूजा यानी-त्याग, समर्पण जैसे गुणों को अपने जीवन में उतारते हुए समाज की सेवा करना है।
संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी ने स्वयं अपने जीवन को अपने समाज की सेवा में अर्पित किया था, ध्येय के अनुरूप अपने जीवन को ढाला था। इसलिए कहा गया कि प.पू. डाक्टरजी के जीवन यानी देह आयी ध्येय लेकर।
प.पू. गुरुजी, रामकृष्ण मिशन में दीक्षा लेने के बाद भी हिमालय में जाकर तपस्या करने की दृष्टि होने के बाद भी "राष्ट्राय स्वाहा, इदं न मम्", मैं नहीं तू ही- जीवन का ध्येय लेकर संपूर्ण शक्ति को, तपस्या को, अपनी विद्वता को समाज सेवा में समर्पित किया।
व्यक्तिपूजा को बढ़ावा देते हुए भौतिकवाद, भोगवाद, के वातावरण के दुष्प्रभाव से अपने आपको बचाना भी महान तपस्या है। जड़वाद, भोगवाद, समर्पण, त्याग, सेवा, निरहंकारिता, सहकारिता, सहयोग, समन्वय के बीच संघर्ष है। त्याग, समर्पण, सहयोग, समन्वय की साधना एकाग्रचित होकर, एक सूत्रता में करना ही मार्ग है। मानव जीवन की सार्थकता और विश्व का कल्याण इसी से संभव है।
♦अरुणि की गुरु भक्ति
राजा जन्मेजय की नगरी में अयुद्धौम्य नामक प्रसिद्ध गुरु का आश्रम था इनका एक सबसे उत्तम शिष्य था आरुणी | आरुणी की गुरु भक्ति इतिहास के पन्नो में गुंजायमान हैं |
घटना कुछ ऐसी हैं, एक बार गाँव के पार मेड़ में दरार बन जाती हैं इससे पानी रिस- रिस खेतो में आने लगता हैं जिसे रोकना बहुत जरुरी हो जाता हैं क्यूंकि ऐसा ना करने पर खेतों में पानी घुसने का खतरा था | जब यह बात आश्रम तक पहुंची तब गुरु अयुद्धौम्य को गाँव की फसलों की चिंता होने लगती हैं | तब वे अपने शिष्य आरुणी को अपने पास बुलाते है समस्या के बारे में विस्तार से बताते हैं और आदेश देते हैं – पुत्र आरुणी इसी समय जाकर मेड़ से बहते पानी का कोई उपचार करो वरना पानी का बहाव बढ़ते ही मेड़ टूट भी सकता हैं और अगर ऐसा होता हैं वो सारी फसले नष्ट हो जायेंगी | गुरु की आज्ञा पाते ही आरुणी बिना कुछ सोचे अपने कार्य को पूरा करने लक्ष्य की तरफ चल पड़ता हैं | गाँव में पहुँचने पर आरुणी पूरी स्थिती समझता हैं और कई प्रकार से मेड़ से बहते पानी को रोकने का प्रयास करता हैं लेकिन पानी का बहाव अधिक होने पर दरार में लगी कोई भी सामग्री टिक नहीं पाती और पानी तेजी से खेतों के आने लगता हैं | तब आरुणी विचार करता हैं और उस मेड़ की दरार पर स्वयं लेट जाता हैं उसके ऐसा करते ही पानी खेतों में जाने से रुक जाता हैं | पानी बहुत ठंडा होने के कारणआरुणी को कम्पन्न महसूस होने लगता हैं लेकिन उसके लिए गुरु का आदेश सर्वोपरि हैं वो कितनी भी तकलीफ सह लेगा पर गुरु के आदेश की अवहेलना नहीं करेगा | आरुणी इसी तरह से सुबह से शाम तक मेड़ पर लेटा रहता हैं और पानी से खेतो की फसलों को बचाता हैं और पूरी श्रद्धा से अपने गुरु के आदेश का पालन करता हैं |
उधर आश्रम में गुरु अयुद्धौम्य बहुत चिंतित हैं | संध्या होने को हैं और आरुणी की कोई खबर नहीं,अब तक तो आरुणी को घर आ जाना था | इन्ही सब विचारों से घिरे अयुद्धौम्य सोच में बैठे हैं | तब ही दुसरे शिष्य गुरु अयुद्धौम्य के पास जाकर चिंता का कारण पूछते हैं | तब गुरु जी कहते हैं – पुत्रो मैंने सुबह आरुणी को मेड़ की दरार भरकर खेतों को पानी से बचाने के लिए भेजा था | उस बात को बहुत समय हो गया, अब तक तो आरुणी को आश्रम आ जाना चाहिये था | वो संध्या की प्रार्थना कभी नहीं छोड़ता,आज पहली बार वो उसमे उपस्थित नहीं हुआ | कहीं कोई चिंता का विषय तो नहीं हैं ? आरुणी किसी बड़ी परेशानी में तो नहीं | सभी चिंतित होकर मेड़ तक जाकर देखने का निर्णय लेते हैं | गुरु अयुद्धौम्य एवम कुछ शिष्य आरुणी को देखने आश्रम से निकल पड़ते हैं |
मेड़ के पास पहुंचकर गुरु अयुद्धौम्य जोर-जोर से आरुणी को पुकारते हैं | थोड़ी देर बाद आरुणी को गुरु जी की आवाज सुनाई देती हैं और वो जोर से उत्तर देता हैं – गुरु जी मैं यहाँ हूँ, मेड़ के उपर लेता हूँ |
सभी आरुणी की तरफ भागते हुये आते हैं और गुरु अयुद्धौम्य जल्दी से आरुणी को खड़ा करते हैं और सभी शिष्य मिलकर दरार को भरते हैं | गुरु जी आरुणी से पूछते हैं – पुत्र तुम इतनी भीषण ठण्ड में इस तरह पानी पर क्यूँ लेटे थे | तुम्हारा पूरा शरीर ठण्ड से नीला पड़ गया हैं | अगर अभी हम नहीं आते तो तुम मृत्यु के समीप ही थे | आरुणी सिर झुकाकर कहता हैं – क्षमा कीजिये गुरुवर, मैंने आप सभी को बहुत कष्ट दिया, किन्तु आपने मुझे पानी बंद करने भेजा था जिसे मैं अकेला कर नहीं पाया, तब एक ही उपाय था जो मैंने किया | गुरु ने कहा – तुम आश्रम आकर इसकी सुचना दे सकते थे | अपने प्राणों को इस तरह से संकट में क्यूँ डाला ? तब आरुणि कहता हैं – हे गुरुवर! आपका आदेश मेरे लिये सर्वोपरि हैं,आपकी चिंता मेरे लिए सबसे बड़ी हैं | अगर मैं आश्रम आता तो फसल का कई हिस्सा बरबाद हो गया होता और यह जानकर आपको बहुत दुःख होता और मेरे कारण आपको मिला दुःख मेरे लिये मृत्यु के समान ही हैं | इसलिये मैंने मेड पर लेटकर पानी को रोकने का निर्णय लिया | आरुणि की ऐसी निष्ठा देख गुरु अयुद्धौम्य को गर्व महसूस होता हैं और वो आरुणि को आशीर्वाद देते हैं – पुत्र तुम्हारा नाम सदैव गुरु भक्ति के लिये जाना जायेगा | युगों- युगों तक तुम्हे सुना एवम पढ़ा जायेगा और तुम्हारे द्वारा किये गये इस कार्य का बखान कर आने वाली पीढ़ी को गुरु भक्ति का पाठ सिखाया जायेगा | और इस तरह गुरु अयुद्धौम्य आरुणि को एक नया नाम उद्दालक देते हैं और उसे आशीर्वाद देते हैं कि तुम्हे बिना किसी अध्ययन के सारे वेदों का ज्ञान प्राप्त हो | इस तरह उसी दिन आरुणि की शिक्षा ख़त्म होती हैं और गुरु उन्हें अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ने का आदेश देते हैं |
आरुणि का नाम उन्ही महान शिष्यों के साथ लिया जाता हैं जो गुरु आदेश को सर्वोपरि रखते हैं जिनमे एक नाम एकलव्य का भी हैं | यह दोनों ही नाम गर्व के साथ लिए जाते हैं |
आज गुरु शिष्य की वह आदर्श परंपरा विलुप्त हो चुकी हैं ऐसे में छात्रों को इसका ज्ञान केवल इन एतिहासिक कहानियों के जरिये मिलता है जो उनमे संस्कारों को पोषित करता हैं | अपनी आने वाली पीढ़ी को तकनीकी ज्ञान के साथ- साथ संस्कारी भी बनाएं जिससे आने वाली पीढ़ी में सम्मान के भाव उत्पन्न होंगे और उनमें अपने से बड़े एवम अपने शिक्षको के प्रति आदर का भाव पनपेगा |।
✍️सुरेन्द्र शर्मा
प्रदेश कार्यसमिति सदस्य भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश
जिला प्रभारी राजगढ़ पूर्व प्रदेश संगठन मंत्री अभाविप